Tuesday, July 7, 2009

वोह शाम

उन मुलाकातों के पन्नों में हम कुछ इस कदर खोये।
कि जब अपने आप को ढूंढ़ना चाहा तोह
मुझे अपने में सिर्फ़ सोच नज़र आई

लगा मेरा तोह कोई अस्तित्य ही नही
वहां, जहाँ भौतिक देह मायने रखती है

मेरा यह सपना हमेशा ही अधूरा रहा कि
कोई मुझे देखे
वोह तोह हमेशा मेरे पार ही देखते थे
मेरे परछाई भी ऐसा लागत था जैसे
किसी चीज़ पर ठेहेरती ही नही है


मेरे छिछली रूह मुझे उस दिन कि याद दिलाती है
जिस दिन तुम मुझसे मिलने आई
मुझे नही पता था कि कुछ कहना चाहिए या नही
पर फिर भी मैंने जितना हो सका उतना तोह कहा ही था

वोह उमंग ना कहीं दिखाई देती है
ना तुम में ना मुझमें
जो उस शाम को शानदार बना सके
पर अफ़सोस ना तुम्हे था ना मुझे

शायद समय बहुत जरूरी होता है
वास्तविकता का भान कराने में
पर यह बात मेरी समझ में ज़रा देर से आई
पर मैं हमेशा से यही जनता हूँ
कि समय छलावा होता है
तोह देर होने से भी फरक नही पड़ता

जहाँ तक मेरा सवाल है मैं अभी तक
तुम्हारे आखरी त्यौरी के चढ़े हुवे बालों पर ही अटका हूँ

1 comment:

amit said...

woh shham : doosri manastithi
ek shham woh bhi tha aur main bhi thi
chhechle kirdaron se bhare,unmukt;

par sankoch aur maryada ki beriyaan bhi theen
ya shayad sanskaar

kabhi gart me gote lagata hua kabhi uddipyamaan

meri rooh aur tera zism
aur charon aur naachti laashen
maano keh rahi hon
ashqon ke ssokhne tak
saanson ke roothne tak
charm ke sar jaane tak
yahi shaam hogi
YAhi naam hoga.
TU MERA hoga.......