Friday, October 1, 2021

कुछ लाइब्रेरी

उत्सुकता धीरे धीरे इंसान के अंदर जन्म लेती है 
मैं उस समय बड़ा हो रहा था 
किसी ने बताया के हमारे कस्बे में कुछ लाइब्रेरी हैं 
मैं कभी कभी एक लाइब्रेरी मैं जाने लगा 
शाम के समय कुछ वक्त लाइब्रेरी मैं गुजर जाता 

एक कमरे की छोटी सी लाइब्रेरी थी 
कुछ अलमारियाँ के साथ 
करीने से रखी किताबें 

उन्मे से मैंने एक की शुरूवात की 
समय का संक्षप्त इतिहास    
 किसी विदेशी लेखक का हिन्दी अनुवाद था 

कभी कभी पढ़ते पढ़ते नींद आ जाती 
तो कोई उठा दिया करता

फिर मेरा स्कूल दूर हो गया 
रास्ते मैं एक अंग्रेजों के जमाने का चर्च था 
पहाड़ की चोटी पर 
जहां से एक पगडंडी स्कूल के लिए छोटा रास्ता बनती थी 

उस चर्च को लोगों ने लाइब्रेरी बना दिया था 
उस चर्च मैं एक फौजी रहता था 
कुछ गिनी चुनी किताबें थी 
वहाँ मिली मुझे कुछ और किताबें 
जिनमे मुक्तिबोध और अज्ञेय भी थे     
कुछ प्रेमचंद की कहानिया भी थी 

स्कूल मैं कभी जल्दी जाने का मन ना करे 
या कभी जल्दी भाग आओ    
तो वो एक ठिकाना था     
ठंड मैं फौजी कभी-कभी 
क किरोसिन के स्टोव पर चाय बना देता था   

फिर मैं थोड़ा और बड़ा हुआ 
देखा कि वो पास वाली लाइब्रेरी बंद होकर 
कहीँ और चली गई 
एक खुले खूशनुमा कमरे से 
एक बंद जर्जर कमरे मैं 

अब किताबें भी पढ़ने नहीं मिलती थी 
कुछ मेरी ही उम्र के लोग 
हाँ उस लाइब्रेरीनुमा कमरे को 
एक पंचायत घर बना रहे थे 

फिर कुछ और समय के बाद वो लाइब्रेरी 
जो एक चर्च मैं थी 
उसे भी बंद कर दिया गया 
वो किताबें जहां उन्हे होना चाहिए 
वो वहाँ नहीं थी 
मन थोड़ा उदास हो गया 

हमारी मूल भावनाओं के विरुद्ध 
लाइब्रेरी भी ऑटक्रैटिक हो गई है 
लाइब्रेरी का भविष्य वो लिखते थे 
जो किताबें नहीं पढ़ते थे 

कुछ और का जिक्र कभी और     

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