काला रंग पहने,
चकतों के शहर से निकल पड़ा ,
एक यायावर
हाँ चकते काले रंग में दिखाई नहीं देते
लाल रंग लपेटना,
लाल रंग ओढना,
लाल रंग में सिमटना,
लाल रंग में नहाना,
और शायद पहना हुआ लाल रंग भी
उस यायावर को ख़राब लगता था
या शायद वोह
लाल रंग का औचित्य ही नहीं समझ सकता था
तीन भाषाओँ या शायद चार
तीस या शायद इकत्तीस बोलियों के बीच
(हाँ क्योंकि दुनिया में आखिरी मायने नहीं रखते
इसलिए मैं भूल रहा हूँ )
हाँ, उनके बीच लाल रंग का एक फूल
उन चार भाषाओँ और इकत्तीस बोलियों से
बेखबर, खुमारी में डूबा हुआ
शायद प्रारब्ध यानी यायावर का इंतजार कर रहा था
इतने भीड़
बोलियों और भाषाओं की
और उसमे उत्सुकता
शायद थोड़ी जिज्ञासा
पर यायावर वातावरण को कहाँ समझ पाते हैं
वैसे भी पुरवाई तो
फूल के लिए उमंग लेकर आती है
पर यायावर तो श्रौत का पता लगाते हैं
वो यायावर श्रुति के मनम में ऐसे खोया
था की उसकी तन्द्रा कभी ना टूटेगी
पर.......
पर फूल लाल रंग में
लिपटा, सिमटा ढका और नहाया हुआ वो फूल
शायर गुलाब ही था,
पर यायावर को वो कुछ और ही लगा,
(वो चकतों का शहर फूलो की घाटी था )
फूल में आकर्षण तो था
पर यायावर काला कपडा पहने
भाषाओँ और बोलियों के क्षीण होने का इंतजार कर रहा था
लाल रंग का आकर्षण
भले ही देर में असर करता हो
पर असरदार तो होता है
यायावर ठिकाना ढूढने लगता है
यही तोह लाल रंग है
पर मुझे उसने धोखा दिया है
और में कविता से बोर हो जाता हूँ
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Monday, February 22, 2010
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